चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार |
गाओ कि जीवन..
.गाओ कि जीवन - गीत बन जाये !
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हर क़दम पर आदमी मजबूर है,
हर रुपहला प्यार-सपना चूर है,
आँसुओं के सिन्धु में डूबा हुआ
आस-सूरज दूर, बेहद दूर है !
गाओ कि कण-कण मीत बन जाये !
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हर तरफ़ छाया अँधेरा है घना,
हर हृदय हत, वेदना से है सना,
संकटों का मूक साया उम्र भर
क्या रहेगा शीश पर यों ही बना ?
गाओ, पराजय - जीत बन जाये !
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साँस पर छायी विवशता की घुटन,
जल रही है ज़िन्दगी भर कर जलन,
विष भरे घन-रज कणों से है भरा
आदमी की चाहनाओं का गगन,
गाओ कि दुख - संगीत बन जाये !
मोह-माया..
.सोनचंपा-सी तुम्हारी याद साँसों में समायी है !
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हो किधर तुम मल्लिका-सी रम्य तन्वंगी,
रे कहाँ अब झलमलाता रूप सतरंगी,
मधुमती-मद-सी तुम्हारी मोहिनी रमनीय छायी है !
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मानवी प्रति कल्पना की कल्प-लतिका बन,
कर गयीं जीवन जवा-कुसुमों भरा उपवन,
खो सभी, बस, मौन मन-मंदाकिनी हमने बहायी है !
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हो किधर तुम , सत्य मेरी मोह-माया री,
प्राण की आसावरी, सुख धूप-छाया री,
राह जीवन की तुम्हारी चित्रसारी से सजायी है !
रात बीती..
.याद रह-रह आ रही है,
रात बीती जा रही है !
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ज़िन्दगी के आज इस सुनसान में
जागता हूँ मैं तुम्हारे ध्यान में
सृष्टि सारी सो गयी है,
भूमि लोरी गा रही है !
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झूमते हैं चित्र नयनों में कयी
गत तुम्हारी बात हर लगती नयी
आज तो गुज़रे दिनों की
बेरुख़ी भी भा रही है !
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बह रहे हैं हम समय की धार में,
प्राण ! रखना, पर भरोसा प्यार में,
कल खिलेगी उर-लता जो
किस क़दर मुरझा रही है !
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भोर होती है..
.और अब आँसू बहाओ मत
भोर होती है !
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दीप सारे बुझ गये
आया प्रभंजन,
सब सहारे ढह गये
बरसा प्रलय-घन,
हार, पंथी ! लड़खड़ाओ मत
भोर होती है !
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बह रही बेबस उमड़
धारा विपथगा,
घोर अँधियारी घिरी
स्वच्छंद प्रमदा,
आस सूरज की मिटाओ मत
भोर होती है !
कौन हो तुम..
कौन हो तुम, चिर-प्रतीक्षा-रत,
आधी अँधेरी रात में ?
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उड़ रहे हैं घन तिमिर के
सृष्टि के इस छोर से उस छोर तक,
मूक इस वातावरण को
देखते नभ के सितारे एकटक,
कौन हो तुम, जागतीं जो इन सितारों के घने संघात में ?
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जल रहा यह दीप किसका
ज्योति अभिनव ले कुटी के द्वार पर,
पंथ पर आलोक अपना
दूर तक बिखरा रहा विस्तार भर,
कौन है यह दीप,जलता जो अकेला,तीव्र गतिमय वात में ?
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कर रहा है आज कोई
बार-बार प्रहार मन की बीन पर,
स्नेह काले लोचनों से
युग-कपोलों पर रहा रह-रह बिखर,
कौन-सी ऐसी व्यथा है, रात में जगते हुए जलजात में ?
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यह न समझो..
यह न समझो कूल मुझको मिल गया
आज भी जीवन-सरित मँझधार में हूँ !
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प्यार मुझको धार से
धार के हर वार से
प्यार है बजते हुए
हर लहर के तार से,
यह न समझो घर सुरक्षित मिल गया
आज भी उघरे हुए संसार में हूँ !
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प्यार भूले गान से
प्यार हत अरमान से
ज़िन्दगी में हर क़दम
हर नये तूफ़ान से,
यह न समझो इंद्र - उपवन मिल गया
आज भी वीरान में, पतझार में हूँ !
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खोजता हूँ नव-किरन
रुपहला जगमग गगन,
चाहता हूँ देखना
एक प्यारा-सा सपन,
यह न समझो चाँद मुझको मिल गया
आज भी चारों तरफ़ अँधियार में हूँ !
जिजीविषा
जी रहा है आदमी
प्यार ही की चाह में !
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पास उसके गिर रही हैं बिजलियाँ,
घोर गह-गह कर घहरती आँधियाँ,
पर, अजब विश्वास ले
सो रहा है आदमी
कल्पना की छाँह में !
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पर्वतों की सामने ऊँचाइयाँ,
खाइयों की घूमती गहराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
चल रहा है आदमी
साथ पाने राह में !
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बज रही हैं मौत की शहनाइयाँ,
कूकती वीरान हैं अमराइयाँ,
पर, अजब विश्वास ले
हँस रहा है आदमी
आँसुओं में, आह में !
महेंद्र भटनागर
Retd. Professor
110, BalwantNagar, Gandhi Road,
GWALIOR — 474 002 [M.P.] INDIA
M - 81 097 30048
Ph.-0751- 4092908
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
महेंद्र भटनागर
- जन्म- 26 जून, 1926, झाँसी (उ.प्र.) भारत।
- शिक्षा- एम.ए., पी-एच. डी. (हिंदी)।
- संप्रति- अध्यापन, मध्य-प्रदेश महाविद्यालयीन शिक्षा / शोध-निर्देशक : हिंदी भाषा एवं साहित्य।
- कृतियाँ- 30 कविता संग्रह और 11 आलोचना ग्रंथों के रचयिता डॉ. महेंद्र भटनागर ने रेखा चित्र, तथा बाल व किशोर साहित्य की रचना भी की है। उनका समग्र साहित्य संकलित हो चुका है और कविताएँ अनेक विदेशी भाषाओं एवं अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर पुस्तकाकार में प्रकाशित हो चुकी हैं। व कुछ पत्रिकाओं के संपादन से भी जुड़े रहे हैं। अनेक छात्रों व विद्वानों द्वारा आपकी कृतियों के ऊपर अनेक अध्ययन प्रस्तुत किए गए हैं।
- पुरस्कार- सम्मान मध्य-भारत एवं मध्य-प्रदेश की कला व साहित्य-परिषदों द्वारा सन 1952, 1958, 1960, 1989 में पुरस्कृत; मध्य-भारत हिंदी साहित्य सभा, ग्वालियर द्वारा 'हिंदी-दिवस 1979' पर सम्मान, 2 अक्तूबर 2004 को, 'गांधी-जयंती' के अवसर पर, 'ग्वालियर साहित्य अकादमी'-द्वारा 'डा. शिवमंगलसिंह' सुमन'- अलंकरण / सम्मान, मध्य-प्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा 'डा. संतोष कुमार तिवारी - समीक्षक-सम्मान' (२००६) एवं अन्य अनेक सम्मान।
- जालघर : www.rachnakar@blogspot.com
- ईमेल : drmbhatnagargwl@rediffmail.com
कविता का भीतरी भाव रस देती सातो रचनाएँ ।जीवन गीत राग गान से ही संभव हैं यह राग विरह का हो या आशा का इससे कोई राग विकृत नही होता ।मोह माया खीचती हैं समूचा अस्तित्व। बुलावे की आवश्यकता वाले भी जीते हैं कविता कहती हैं ।अब मोह पाश फसा विकल हो जागता हैं या आकुल अतृप्त हृदय ।जो भी अभिव्यक्ति रस देती हैं ।भोर होती हैं चेतना का सम्बल हैं सार्थक अभिव्यक्ति ।कौन हो तुम विरहाकूल दशा का । भ्रमित जीवन का आभास देती यह न समझो।जिजीविषा कविता
जवाब देंहटाएंजीने की लालसा को अभिव्यक्ति देती हैं ।बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ।बधाई नमन।