बुधवार, 5 जुलाई 2017

दिविक रमेश की कविताएं


हरिगोपाल सन्नू 'हर्ष' की कलाकृति


आदमी जो बच गया


आखिर बच्चा ही था वह
(हालाँकि इतना बच्चा भी नहीं था)
जिसने जानना चाहा बिना किसी संदर्भ के
कि कहाँ है लाहॊर?

’पाकिस्तान में?’-एक आसान-सा उत्तर था मेरा।
’ऒर दिल्ली?’
मैंने कहा-भारत में।

सोच लिया, चलो जान छूटी। बच्चा चुप हो गया था।

लेकिन अचानक ही फिर बोल पड़ा वह
मैं हिल गया अचानक हुए बम विस्फोट की तरह।
’भारत ऒर पाकिस्तान कहाँ हैं ?’
’ज़मीन पर! और कहाँ?’ थोड़ा झुँझलाकर कह गया।

’तो ज़मीन वाली बात इतने गुस्से से क्यों बता रहे हैं आप?

उसकी आँखों में मासूमियत थी ऒर वह चला गया।

बहुत देर तक
एक आदमी
मुझमें बचने की कोशिश करता रहा।


आग को जब प्यार कह गया


मैंने कहा प्यार
और उससे उसके अर्थ की जगह आग निकली

मैंने चाहत कहा
और उससे भी अर्थ की जगह आग निकली

मैंने हर वह शब्द जो कहा ऐसे ही
उससे अर्थ की जगह आग ही निकली

ऐसा क्यों हुआ

क्यों बचता रहा आग को आग कहने से
क्यों टालता रहा
भीतर के असल शब्द को
किसी दूसरे शब्द से ?

सोचता हूं
ऐसा क्यों होता है
बहुसंख्यक लोगो !
तुम्हारी तरह बस सोचता हूं।


खोल दो: पुनश्च


‘आंखों में सदियों का जमा दर्द
शरीर बुरी तरह सना सहमती कीचड़ से
भाई तुम कौन हो कहां से पधारे’

हम मंटो की कहानी ‘खोल दो’ हैं:
नाड़ा खुली सलवार से हिन्दू... या शायद मुसलमान... या
क्या फर्क पड़ता है अब कि हम हिन्दू हैं कि मुसलमान

यूं हम गुजरात से हैं।

हम सोचते थे कि वतन वह होता है
जिसमें जन्मता है बंदा एक ही नूर का
कि जिसके लिए जीता और मरता है।

कहां जाना था
कि एक ज़मीन होती है हिन्दू की
कि एक मुसलमान की होती है
एक ही पृथ्वी पर।

हम तो यह भी नहीं जानते थे
कि हिन्दू जनेऊ होता है
कि हिन्दू तिलक होता है
और मुसलमान इंसान से कुछ अलग भी होता है।

सच तो यह है
कि यह भूख तक न हिन्दू है न मुसलमान
और कहां है यह पीड़ा भी
ये औजार यह मेहनत और यह पसीना भी।

कहां जान पाए हैं हम
कब लौट पाएंगें घर
कब लौट पाएंगें
जैसे लौटना चाहिए बंदों को घरों को।

हम मंटो की कहानी ‘खोल दो’ हैं।


सोचूँ


ज़रा सोचूँ
सोचूँ बावजूद डर के
सोचूँ बावजूद डरे हुओं के

सोचूँ 
डर सिपाही में है या हमारी चोरी में
डर मृत्यु में है या जीने की लालसा में
डर डरा रहे राक्षस में है या खुद हममें

सोचूँ
मरता वह है
डर हमें लगता है
गुनाह वह करता है
कांपते हम हैं

सोचूँ
छूट गया डरना
तो क्या होगा डर का

सोचूँ
बारिश में भीगने का डर
क्यों भागता है बारिश में भीगकर

सोचूँ
क्या होता है हव्वा
जिसे न बच्चा जानता है, न हम।

सोचूँ
हम रचते ही क्यों हैं हव्वा?

सोचूँ
एक कहानी है भस्मांकुर
या विजय डर पर।

अच्छा, इतना तो सोच ही लूँ
कि जब पिट्टी कर देते हैं हव्वा की
तो क्यों भाग जाता है
सचमुच
बच्चे की आँखों से हव्वा।
बच्चा बजाता है तालियाँ।

आओ, कभी कभार बिने सोचे
मात्र भगाने की बजाय
कर दें हत्या हव्वा की
क्या हम नहीं चाहते
कि बजाता रहे तालियाँ बच्चा
लगातार...... लगातार.........

सोचूँ
लेकिन !


दहाड़


कह सकते हैं क्या
सांझ से छोड़ने को अपनी कालिमा ?

कह सकते हैं क्या
पेड़ से छोड़ने को अपनी छांह ?

कह सकते हैं क्या आकाश को
कि छोड़ दे अपनी धरती ?

जो भी हो
एक रंग है
मेरे भी चेहरे की पहचान का ।
एक छांह है
मेरी भी
अपने थके हुए दोस्तों के लिए ।
एक धरती भी है -
मेरी सांस -
जाने कितने ही चढ़-उतर रहे हैं
जिसको पकड़े
मेरे अपने, मेरे जन।

मैं नहीं जानता
क्या है आखिरी परिभाषा प्रेम की
नहीं जानता
क्या है आखिरी अर्थ न्यौछावर होने का
बस इतना जरूर जानता हूं
कि जब जब हिलाया है मुझे
युद्ध की दहाड़ ने
मुझे लगा है
जैसे हुक्म दिया गया है सांझ को
अपनी कालिमा छोड़ने का

जैसे हुक्म दिया गया है पेड़ को
अपनी छांह तजने का

जैसे कहा गया है आकाश को
अपनी धरती छोड़ने को ।


दिविक रमेश



  • वास्तविक नाम - रमेश शर्मा
  • जन्म :  १९४६, गाँव किराड़ी, दिल्ली।
  • शिक्षा :  एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय)
  • पुरस्कार/सम्मान : गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, १९९७
  • सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, १९८४
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, १९८३
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का साहित्यकार सम्मान २००३-२००४
  • एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८९
  • दिल्ली हिन्दी अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, १९८७
  • भारतीय बाल-कल्याण संस्थान, कानपुर का सम्मान १९९१
  • बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य एवार्ड १९९२
  • इंडो-रशियन लिटरेरी कल्ब, नई दिल्ली का सम्मान १९९५
  • कोरियाई दूतावास से प्रशंसा-पत्र २००१बंग नागरी प्राचारिणी सभा का पत्रकार शिरोमणि सम्मान १९७६ में।
  • प्रकाशित कृतियाँ :कविताः 'रास्ते के बीच', 'खुली आंखों में आकाश', 'हल्दी-चावल और अन्य कविताएं', 'छोटा-सा हस्तक्षेप', 'फूल तब भी खिला होता' (कविता-संग्रह)। 'खण्ड-खण्ड अग्नि' (काव्य-नाटक)। 'फेदर' (अंग्रेजी में अनूदित कविताएं)। 'से दल अइ ग्योल होन' (कोरियाई भाषा में अनूदित कविताएं)। 'अष्टावक्र' (मराठी में अनूदित कविताएं)। 'गेहूँ घर आया है' (चुनी हुई कविताएँ, चयनः अशोक वाजपेयी)।
  • आलोचना एवं शोधः  नये कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धान्त, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात् त्रिलोचन’, ‘संवाद भी विवाद भी’। ‘निषेध के बाद’ (कविताएं), ‘हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश’ (कहानियां और लेख), ‘कथा-पडाव’ (कहानियां एवं उन पर समीक्षात्मक लेख), ‘आंसांबल’ (कविताएं, उनके अंग्रेजी अनुवाद और ग्राफिक्स), ‘दूसरा दिविक’ आदि का संपादन।
  •  ‘कोरियाई कविता-यात्रा’ (हिन्दी में अनूदित कविताएं)। ‘द डे ब्रक्स ओ इंडिया’ (कोरियाई कवयित्री किम यांग शिक की कविताओं के हिंदी अनूवाद) । ‘सुनो अफ्रीका’।
  • बाल-साहित्यः ‘जोकर मुझे बना दो जी’, ‘हंसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘छतरी से गपशप’, ‘अगर खेलता हाथी होली’, ‘तस्वीर और मुन्ना’, ‘मधुर गीत भाग ३ और ४’, ‘अगर पेड भी चलते होते’, ‘खुशी लौटाते हैं त्यौहार’, ‘मेघ हंसेंगे जोर-जोर से’ (चुनी हुई बाल कविताएँ, चयनः प्रकाश मनु)। ‘धूर्त साधु और किसान’, ‘सबसे बडा दानी’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘घमण्ड की हार’, ‘ओह पापा’, ‘बोलती डिबिया’, ‘ज्ञान परी’, ‘सच्चा दोस्त’, (कहानियां)। ‘और पेड गूंगे हो गए’, (विश्व की लोककथाएँ), ‘फूल भी और फल भी’ (लेखकों से संबद्ध साक्षात् आत्मीय संस्मरण)। ‘कोरियाई बाल कविताएं’। ‘कोरियाई लोक कथाएं’। ‘कोरियाई कथाएँ’।
  • ‘और पेड गूंगे हो गए’, ‘सच्चा दोस्त’ (लोक कथाएं)।
  • अन्यः ‘बल्लू हाथी का बाल घर’ (बाल-नाटक)। 
  • ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’ के मराठी, गुजराती और अंग्रेजी अनुवाद।
  • अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में रचनाएं अनूदित हो चुकी हैं। रचनाएं पाठयक्रमों में निर्धारित।
  • विशेष : २०वीं शताब्दी के आठवें दशक में अपने पहले ही कविता-संग्रह ’रास्ते के बीच‘ से चर्चित हो जाने वाले आज के सुप्रतिष्ठित हिन्दी-कवि बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। ३८ वर्ष की आयु में ही ’रास्ते के बीच‘ और ’खुली आंखों में आकाश‘ जैसी अपनी मौलिक साहित्यिक कृतियों पर सोवियत लैंड नेहरू एवार्ड जैसा अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले ये पहले कवि हैं। १७-१८ वर्षों तक दूरदर्शन के विविध कार्यक्रमों का संचालन किया। १९९४ से १९९७ में भारत सरकार की ओर से दक्षिण कोरिया में अतिथि आचार्य के रूप में भेजे गए जहाँ इन्होंने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कितने ही कीर्तिमान स्थापित किए। वहाँ के जन-जीवन और वहाँ की संस्कृति और साहित्य का गहरा परिचय लेने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप ऐतिहासिक रूप में, कोरियाई भाषा में अनूदित-प्रकाशत हिन्दी कविता के पहले संग्रह के रूप में इनकी अपनी कविताओं का संग्रह ’से दल अइ ग्योल हान‘ अर्थात् चिड़िया का ब्याह है। इसी प्रकार साहित्य अकादमी के द्वारा प्रकाशित इनके द्वारा चयनित और हिन्दी में अनूदित कोरियाई प्राचीन और आधुनिक कविताओं का संग्रह ’कोरियाई कविता-यात्रा‘ भी ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा में अपने ढंग का पहला संग्रह है। साथ ही इन्हीं के द्वारा तैयार किए गए कोरियाई बाल कविताओं और कोरियाई लोक कथाओं के संग्रह भी ऐतिहासिक दृष्टि से पहले हैं।
  • दिविक रमेश की अनेक कविताओं पर कलाकारों ने चित्र, कोलाज और ग्राफिक्स आदि बनाए हैं। उनकी प्रदर्शनियाँ भी हुई हैं। इनकी बाल-कविताओं को संगीतबद्ध किया गया है। जहाँ इनका काव्य-नाटक ’खण्ड-खण्ड अग्नि‘ बंगलौर विश्वविद्यालय की एम.ए. कक्षा के पाठ्यक्रम में निर्धारित है वहाँ इनकी बाल-रचनाएँ पंजाब, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र बोर्ड तथा दिल्ली सहित विभिन्न स्कूलों की विभिन्न कक्षाओं में पढ़ायी जा रही हैं। इनकी कविताओं पर पी-एच.डी के उपाधि के लिए शोध भी हो चुके हैं।
  • इनकी कविताओं को देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित संग्रहों में स्थान मिला है। इनमें से कुछ अत्यंत उल्लेखनीय इस प्रकार हैं १. इंडिया पोयट्री टुडे (आई.सी.सी.आर.), १९८५, २. न्यू लैटर (यू.एस.ए.) स्प्रिंग/समर, १९८२, ३. लोटस (एफ्रो-एशियन राइटिंग्ज, ट्युनिस श्ज्नदपेश् द्धए वॉल्यूमः५६, १९८५, ४. इंडियन लिटरेचर ;(Special number of Indian Poetry Today) साहित्य अकादमी, जनवरी/अप्रैल, १९८०, ५. Natural Modernism (peace through poetry world congress of poets) (१९९७) कोरिया, ६. हिन्दी के श्रेष्ठ बाल-गीत (संपादकः श्री जयप्रकाश भारती), १९८७, ७. आठवें दशक की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं (संपादकः हरिवंशराय बच्चन)।
  • दिविक रमेश अनेक देशों जैसे जापान, कोरिया, बैंकाक, हांगकांग, सिंगापोर, इंग्लैंड, अमेरिका, रूस, जर्मनी, पोर्ट ऑफ स्पेन आदि की यात्राएं कर चुके हैं।
  • संप्रति :  प्राचार्य, मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
  • सम्पर्क : divik_ramesh@yahoo.com

बुधवार, 21 जून 2017

कुंवर नारायण की कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

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नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर श्री कुँवर नारायण अज्ञेय द्वारा संपादित तीसरा सप्तक (1959) के प्रमुख कवियों में रहे हैं। उनका जन्म 19 सितंबर 1927 को हुआ। कुँवर नारायण को अपनी रचनाशीलता में इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने के लिए जाना जाता है। उनका रचना संसार इतना व्यापक एवं जटिल है कि उसको कोई एक नाम देना सम्भव नहीं। यद्यपि कुंवर नारायण की मूल विधा कविता रही है पर इसके अलावा उन्होंने कहानी, लेख व समीक्षाओं के साथ-साथ सिनेमा, रंगमंच एवं अन्य कलाओं पर भी बखूबी लेखनी चलायी है। इसके चलते जहाँ उनके लेखन में सहज संप्रेषणीयता आई वहीं वे प्रयोगधर्मी भी बने रहे। उनकी कविताओं-कहानियों का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। ‘तनाव‘ पत्रिका के लिए उन्होंने कवाफी तथा ब्रोर्खेस की कविताओं का भी अनुवाद किया है। 2009 में उन्हें वर्ष 2005 के लिए देश के साहित्य जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं....
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घबरा कर


वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था 
लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।
ज़्यादातर कुत्ते 
पागल नहीं होते 
न ज़्यादातर जानवर 
हमलावर 
ज़्यादातर आदमी 
डाकू नहीं होते 
न ज़्यादातर जेबों में चाकू
ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में 
लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।
मैंने जिसे पागल समझ कर 
दुतकार दिया था 
वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था 
जिसने उसे प्यार दिया था।


ऐतिहासिक फ़ासले


अच्छी तरह याद है
तब तेरह दिन लगे थे ट्रेन से
साइबेरिया के मैदानों को पार करके
मास्को से बाइजिंग तक पहुँचने में।
अब केवल सात दिन लगते हैं
उसी फ़ासले को तय करने में −
हवाई जहाज से सात घंटे भी नहीं लगते।
पुराने ज़मानों में बरसों लगते थे
उसी दूरी को तय करने में।
दूरियों का भूगोल नहीं
उनका समय बदलता है।
कितना ऐतिहासिक लगता है आज
तुमसे उस दिन मिलना।


आँकड़ों की बीमारी


एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
गिनते गिनते जब संख्या 
करोड़ों को पार करने लगी 
मैं बेहोश हो गया
होश आया तो मैं अस्पताल में था 
खून चढ़ाया जा रहा था 
आँक्सीजन दी जा रही थी 
कि मैं चिल्लाया 
डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही 
यह हँसानेवाली गैस है शायद 
प्राण बचानेवाली नहीं 
तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते 
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का 
पैदाइशी हक़ है वरना 
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र
बोलिए नहीं - नर्स ने कहा - बेहद कमज़ोर हैं आप 
बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप
डाक्टर ने समझाया - आँकड़ों का वाइरस 
बुरी तरह फैल रहा आजकल 
सीधे दिमाग़ पर असर करता 
भाग्यवान हैं आप कि बच गए 
कुछ भी हो सकता था आपको –
सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते 
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता 
आपका बोलना 
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी 
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से 
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे 
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है 
आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती 
शान्ति से काम लें 
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे .....
अचानक मुझे लगा 
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में 
बदल गई थी डाक्टर की सूरत 
और मैं आँकड़ों का काटा 
चीख़ता चला जा रहा था 
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं।

पुस्तक समीक्षा: उम्मीदों की फसल उगाते नवगीत-सुरेन्द्र सिंह पॅवार




                                   पुस्तक समीक्षा-काल है संक्राति का


      ‘काल है संक्रांति का’ 'सलिल' जी की दूसरी पारी का प्रथम गीत-नवगीत संग्रह है। ‘सलिल’ जी की शब्द और छन्द के प्रति अटूट निष्ठा है। हिन्दी पञ्चांग और अंग्रेजी कलेण्डर में मकर संक्रांति एक ऐसा पर्व है जो प्रतिवर्ष चौदह जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। इसी दिन से शिशिर ऋतु का एवं उत्तरायण का प्रारंभ माना गया है। इसी के आसपास, गुजरात में पतंगोत्सव, पंजाब में लोहड़ी, तामिलनाडु में पोंगल, केरल में अयप्पा दर्शन, पूर्वी भारत में बिहू आदि पर्वों की वृहद श्रृंखला है जो ऋतु परिवर्तन को लोक पर्व के रूप में मनाकर आनंदित होती है। भारत के क्षेत्र में पवित्र नदियों एवं सरोवरों के तट पर स्नान दान और मेलों की परम्परा है।

       संग्रह के ज्यादातर नवगीत 29 दिसम्बर 2014 से 22 जनवरी 2015 के मध्य रचे गये हैं। यह वह संक्रांति काल है, जब दिल्ली में ‘आप’ को अल्पमत और केजरीवाल द्वारा सरकार न चलाने का जोखिम भरा निर्णय, मध्यप्रदेश सहित कुछ अन्य हिन्दी भाषी राज्यों में भाजपा को प्रचंड बहुमत तथा केन्द्र में प्रधानमंत्री मोदी जी की धमाकेदार पेशवाई से तत्कालीन राजनैतिक परिदृश्य बदला-बदला सा था। ऐसे में कलम के सिपाही ‘सलिल’ कैसे शांत रहते? उन्हें विषयों का टोटा नहीं था, बस कवि-कल्पना दौड़ाई और मुखड़ों-अंतरों की तुकें मिलने लगी। सलिल जी ने गीत नर्मदा के अमृतस्य जल को प्रत्यावर्तित कर नवगीतरूपी क्षिप्रा में प्रवाहमान, किया, जिसमें अवगाहन कर हम जैसे रसिक श्रोता / पाठक देर तक और दूर तक गोते लगा सकते हैं । कहते है, नवगीत गीत का सहोदर है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है । सलिल - संग्रह के सभी गीत नवगीत नहीं हैं परन्तु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही । डॉ. नामवरसिंह के अनुसार ‘‘नवगीत अपने नये रूप’ और ‘नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका हैं ।’’ क्या है नवगीत का ‘नया रूप’’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल - 

नव्यता संप्रेषणों में जान भरती, 
गेयता संवेदनों का गान करती।
कथ्य होता, तथ्य का आधार खाँटा,
सधी गति-यति अंतरों का मान करती।
अंतरों के बाद, मुखड़ा आ विहँसता,
मिलन की मधु बंसरी, है चाह संजनी।
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,
मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।
लाक्षणिता भाव, रस, रूपक सलोने,
बिम्ब टटकापन मिलें, बारात सजती।
नाचता नवगीत के संग, लोक का मन
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी।।

       वैसे गीत में आने वाले इस बदलाव की नव्यता की सूचना सर्वप्रथम महाकवि निराला ने ‘‘नवगति नवलय, ताल छन्द नव’’ कहकर बहुत पहले दे दी थी । वास्तव में, नवगीत आम-आदमी के जीवन में आये उतार-चढ़ाव, संघर्ष-उत्पीड़न, दुख-तकलीफ-घुटन, बेकारी, गरीबी और बेचारगी की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है ।

       सलिल जी के प्रतिनिधि नवगीतों के केन्द्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फैक्ट्रियों तक खून-सीना बहाता हुआ मेहनत करता है, फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई हैं, उसे प्रतिदिन दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है । ‘मिली दिहाड़ी’ नवगीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही दृश्य उकेरा है -

चाँवल-दाल किलो भर ले ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी।

तेल पाव भर फल्ली का
सिंदूर एक पुड़िया दे-
दे अमरुद पाँच का, बेटी की
न सहूँ नाराजी।

खाली जेब पसीना चूता,
अब मत रुक रे मन बेजार ।
मिली दिहाड़ी, चल बाजार ।।

         नवगीतों ने गीत को परम्परावादी रोमानी वातावरण से निकालकर समष्टिवादी यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल जी के ताजे नवगीतों में प्रकृति अपने समग्र वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएँ हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण भी है । सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर गाया हुआ प्रभाती गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है -

ऊषा किरण रतनार सोहती ।
वसुधा नभ का हृदय मोहती ।
कलरव करती मुनमुन चिड़िया
पुरवैया की बाट जोहती ।।

गुनो सूर्य लाता है
सेकर अच्छे दिन ।।

          सलिल जी ने नवगीतों में सामाजिक-राजनैतिक विकृतियों एवं सांस्कृतिक पराभवों की काट में पैनी व्यंजक शैली अपनाते हुए अपनी लेखनी को थोड़ा टेढ़ा किया है । ‘शीर्षासन करती सियासत’, ‘नाग-साँप फिर साथ हुए’, ‘राजनीति तज दे तन्दूर’, ‘गरीबी हटाओ की जुमलेबाजी’, ‘अच्छे दिन जैसे लोक लुभावन नारे धारा तीन सौ सत्तर, काशी-मथुरा-अवध जैसे सभी विषय इन नवगीतो में रूपायित हुए हैं -

मंजिल पाने साथ चले थे
लिये हाथ में हाथ चले थे
दो मन थे, मत तीन हुए फिर
ऊग न पाये, सूर्य ढले थे

जनगण पूछे
कहें 'खैर है'

अथवा

हम में हर एक तीसमारखाँ 
कोई नहीं किसी से कम।
हम आपस में उलझ-उलझ कर
दिखा रहे हैं अपनी दम।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम।
आँख के अंधे, देख न देखें
दरक रही है दीवारें।

          देखा जा रहा है कि नवगीत का जो साँचा आज ये 60-65 वर्ष पूर्व तैयार किया गया था, कुछ नवगीतकार उसी से चिपक कर रह गये हैं। आज भी वे सीमित शब्द, लय और बिम्बात्मक सम्पदा के आधार पर केवल पुनरावृत्ति कर रहे हैं। सलिल जी जैसे नवगीतकार ही हैं, जो लीक से हटने का साहस जुटा पा रहे हैं, जो छंद को भी साध रहे हैं और बोध को भी। सलिल जी के इन नवगीतों में परम्परागत मात्रिक और वर्णिक छंदों का अभिनव प्रयोग देखा गया है। विशेषकर दोहा, सोरठा, हरिगीतिका, आल्हा और सवैया का । इनमें लोक से जुड़ी भाषा है, धुन है, प्रतीक हैं। इनमें चूल्हा-सिगड़ी है, बाटी-भरता-चटनी है, लैया-गजक है, तिल-गुड़ वाले लडुआ हैं, सास-बहू, ननदी-भौनाई के नजदीकी रिश्ते हैं, चीटी-धप्प, लँगड़ी, कन्नागोटी, पिट्टू, कैरम हैं, रमतूला , मेला, नौटंकी, कठपुतली हैं। ‘सुन्दरिये मुंदरिये, होय’, राय अब्दुला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी की याद में गाये जाने वाला लोहड़ी गीत है, ईसुरी की चौकड़िया फाग पर आधारित -

‘मिलती काय ने ऊँचीवारी, कुर्सी हमखों गुंइया है’।

         सलिल जी के इन गीतों/नवगीतों को लय-ताल में गाया जा सकता है, ज्यादातर तीन से चार बंद के नवगीत हैं। अतः, पढ़ने-सुनने में बोरियत या ऊब नहीं होती। इनमें फैलाव था विस्तार के स्थान पर कसावट है, संक्षिप्तता है। भाषा सहज है, सर्वग्राही है। कई बार सूत्रों जैसी भाषा आनंदित कर देती है। जैसे कि, भवानी प्रसाद तिवारी का एक सुप्रसिद्ध गीत है- ‘‘मनुष्य उठ! मनुष्य को भुजा पसार भेंट ले।’’ अथवा इसी भावभूमि कर चन्द्रसेन विराट का गीत है- ‘‘मिल तो मत मन मारे मिल, खुल कर बाँह पसारे मिल’’ सलिल जी ने भावों के प्रकटीकरण में ‘भुजा-भेंट’ का प्रशस्त-प्रयोग किया है। 

         सलिल द्वारा सूरज के लिए ‘सूरज बबुआ’ का जो सद्य संबोधन दिया है वह आने वाले समय में ‘‘चन्दा मामा’’ जैसी राह पकडे़गा। मिथकों के सहारे जब सलिल के सधे हुए नवगीत आगे बढ़ते हैं तो उनकी बनक उनकी रंगत और उनकी चाल देखते ही बनती है -

अब नहीं है वह समय जब
मधुर फल तुममें दिखा था।
फाँद अम्बर पकड़ तुमको
लपककर मुँह में रखा था।
छा गया दस दिशा तिमिर तब
चक्र जीवन का रुका था।
देख आता वज्र, बालक
विहँसकर नीचे झुका था।

हनु हुआ घायल मगर
वरदान तुमने दिये सूरज।

         और एक बात, सलिल जी नवगीत कवि के साथ-साथ प्रकाशक की भूमिका में भी जागरूक दिखाई दिये, बधाई। संग्रह का आवरण एवं आंतरिक सज्जा उत्कृष्ट है। यदि वे चाहते तो कृति में नवगीतों, पुनर्नवगीतों; जिनमें नवगीतों की परम्परा से इतर प्रयोग हैं और गीतों को पृथक-प्रखंडित करने एवं पाँच गीतों, नवगीतों, वंदन, स्तवन, स्मरण, समर्पण और कथन की सुदीर्घ काव्यमय आत्म कथ्य को सीमित करने का संपादकीय जोखिम अवश्य उठा सकते थे। सलिल जी ने अपने सामाजिक स्तर, आंचलिक भाषा, उपयुक्त मिथक, मुहावरों और अहानो (लोकोक्तियों) के माध्यम से व्यक्तिगत विशिष्टाओं का परिचय देते हुए हमें अपने परिवेश से सहज साक्षात्कार कराया है, इसके लिये वे साधुवाद के पात्र हैं। ‘उम्मीदों की फसल उगाते’ और ‘उजियारे की पौ-बारा’ करते ये नवगीत नया इतिहास लिखने की कुब्बत रखते हैं। ये तो शुरूआत है, अभी उनके और-और स्तरीय नवगीत संग्रह आयेंगे, यही शुभेच्छा है।

  • समीक्ष्य पुस्तक-काल है संक्रांति का (गीत-नवगीत संग्रह)/ आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रथम संस्करण 2016, आकार 22 से.मी. x 13.5 से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ 128, मूल्य जन संस्करण 200/-, पुस्तकालय संस्करण 300/-, समन्वय प्रकाशन, 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर-482003


सुरेन्द्र सिंह पॅवार


201,शास्त्री नगर गढ़ा,
जबलपुर-3 (म.प्र.)
मोबाईल-9300104296
ईमेल:pawarss2506@gmail.com

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

नाज़िम हिक़मत की कविताएँ


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मेरी कविता के बारे में


मेरे पास सवारी करने के लिए
चाँदी की काठी वाला अश्व न था
रहने के लिए कोई पैतृक निवास न था
न धन दौलत थी और न ही अचल सम्पत्ति
एक प्याला शहद ही था जो मेरा अपना था
एक प्याला शहद
जो आग की तरह सुर्ख़ था !
मेरा शहद ही मेरे लिए सब कुछ था
मैनें अपनी धन दौलत
अपनी अचल सम्पदा की रखबाली की
हर क़िस्म के जीव-जन्तुओं से उसकी रक्षा की
मेरे सहोदर, तनिक प्रतीक्षा तो करो
यहाँ मेरा आशय
मेरे शहद भरे पात्र से ही है
जैसे ही मैं
अपना पात्र शहद से भर लूँगा
मक्खियाँ टिम्बकटू से चलकर
इस तक आएँगी !


कुछ सलाह उनके लिए जो उद्देश्य के लिए जेल में हैं


गर्दन पर फन्दा कसने के बजाय
यदि धकेल दिया जाए तुम्हें काल-कोठरी में
महज़ इसलिए
कि दुनिया के लिए, अपने देश के लिए,
अपनों के लिए उम्मीद नही छोड़ी तुमने
यदि ज़िन्दगी के बाक़ी बचे दस-पन्द्रह वर्षों में भी
तुम्हारे साथ यही सुलूक होता रहे
तो तुम यह भी नही कह पाओगे कि अच्छा होता
जो मुझे रस्सी के छोर पर एक झण्डे की तरह टाँग दिया जाता
किन्तु तुम्हें डटे रहना होगा और जीना होगा
वास्तव में यह तुम्हें ख़ुशी नही दे सकता
लेकिन तुम्हारा यह परम कर्तव्य है
दुश्मन का विरोध करने के लिए तुम
एक दिन और जियो
मुमकिन है कि
कुएँ के तल से आती आवाज़ की तरह
तुम्हारा अन्तर्मन भी अकेलेपन से भर उठे
किन्तु दूसरी ओर
दुनिया की हड़बड़ी देख
भीतर ही भीतर सिहर उठोगे तुम
बाह्य जगत में एक पत्ती भी
चालीस दिनों के अन्तराल पर निकलती है
अन्तर्घट से आती आवाज़ के लिए प्रतीक्षा करना
दुःख भरे गीत गाना
या पूरी रात छत ताकते हुए जागते रहना
भला तो है किन्तु डरावना भी है
हर बार हजामत बनाते हुए
अपने चेहरे को देखो !
भूल जाओ अपनी उम्र !
दुश्मन से सतर्क रहो
और मधुमास की रातों के लिए
रोटी का आख़िरी टुकड़ा खाना
हमेशा याद रखो
और कभी मत भूलो
दिल से खिलखिलाना !
कौन जानता है
वह महिला जिसे तुम प्रेम करते हो
कल तुम्हें प्रेम करना ही छोड़ दे
मत कहना यह कोई बड़ा मसला नही है
यह मनुष्य के लिए
मन की हरी डाली तोड़ देने जैसा होगा
मन ही मन गुलाबों और बाग़ीचों के बारे में
सोचते रहना फिजूल है
वहीँ समन्दर और पर्वतों के बारे में सोचना उत्तम होगा
बिना रुके पढ़ते-लिखते रहो
और मैं तुम्हें बुनने और
दर्पण बनाने की सलाह भी दूँगा
मेरा आशय यह कतई नही है
तुम दस या पन्द्रह वर्ष
जेल में नही रह सकते
इससे कहीं ज़्यादा .....
तुम कर सकते हो
जब तक
तुम्हारे हृदय के बाईं ओर स्थित मणि
अपनी कान्ति न गँवा दे !

(अंग्रेज़ी से अनुवाद : नीता पोरवाल)


पुस्तक समीक्षा: ‘सरहदें’-कवि कलम की चाह लेकर सर हदें-आचार्य संजीव सलिल




मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनानुदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिये विवश कर रही है। कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएँ बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अविश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोध जी की कविताएँ ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। कवि सुबोध का पत्रकांर उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूरकर जमीनी सामाजिकता से जोड़ता है। उनकी कविताएँ अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकांर को उसका कवि आशावादी बनाता है।

सब कुछ खत्म/ नहीं होता
सब कुछ/ खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हाँ, एक कतरा उम्मीद भी/ खड़ी कर सकती है
हौसले और विश्वास की/ बुलंद इमारत।

अपने नाम के अनुरूप् सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाडने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शान्ति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-

तुम्हें/ भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी/ बंदूकों की फसल
लेकिन-/ मुझे आनंदित करती है
पीली-पीली सरसों/ और/दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता/ संगीत।
तुम्हारे बच्चों को/ शायद
लोरियों सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट/ लेकिन/सुनो
कभी खाली पेट नहीं भरा करती
बंदूकें/सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।

सुबोध की कविताएँ आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिये उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।

उसके बाद/ फिर कभी नहीं मिले/ हम-तुम
लेकिन/ मेरी जिन्दगी को/ महका रही है
अब तक/ खुशबू/तेरी याद की
क्योकि/ यहाँ नहीं है/ कोई सरहद।

‘अहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएँ लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।

आँगन में/जरा सी धूप खिली
मुंडेर पे बैठी/ चिडि़या ने/फुदककर
पंखों में छिपा मुंह /बाहर निकाला
और/चहचहाई/तो यूं लगा/कि तुम आ गये।

कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-

जितना/खौफनाक लगता है/सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/डर पैदा करता है
कोई/खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियां /तकरीबन एक सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/सन्नाटा/टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/माहौल/लेकिन
चुप्पी टूटने पे/ अक्सर/बदला-बदला सा
नज़र आता है/ आदमी।

संग्रह के आकर्षण में डॉ रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल ‘अंकुश’ के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेश जी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।

  • सरहदें (कविता संग्रह)-सुबोध श्रीवास्तव/ ISBN 978-93-83969-72-2 / प्रथम संस्करण-2016 / मूल्य 120 रु.
  • प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चैराहा, मुटठीगंज, इलाहाबाद 211003,फ़ोन-+91-9453004398
  • कवि संपर्क- 'मॉडर्न विला', 10/518, खलासी लाइंस, कानपुर (उ.प्र.)-208001, फ़ोन-+91-9305540745


समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 


'समन्वयम' 204, विजय अपार्टमेंट,
नेपियर टाउन, जबलपुर-482001
मो. 09425183244
ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 7 मार्च 2016

मैं ब्रह्मा हूँ एवं अन्य कविताएं-दिव्या माथुर


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार


मैं ब्रह्मा हूँ



मैं ब्रह्मा हूँ
ये सारा ब्रह्मांड
मेरी ही कोख से जन्मा है
पाला है इसे मैंने
ढेर सा प्यार-दुलार देकर
और ये मेरे ही जाए
मेरी ही गोद का
बँटवारा करने पर तुले हैं
चिंदी चिंदी कर डाला है
मेरा आँचल
युद्ध चल रहा है 
मेरी ही गोद में
ग़रीबों को कुचल रहें हैं अमीर
कमज़ोरों को धमका रहे हैं बलशाली
मैं किसके संग रहूँ
या किसको सही कहूँ
जिसको भी समझाना चाहूँ
वह ही विरुद्ध हो जाता है
’बहकावे में आ जाती हूँ’
मुझपर इल्ज़ाम लगाता है
एक दिन मुझसे जगह पलटें
ता जानेंगे दुविधा माँ की
क्या सह पायेंगे पल भर भी
सतत वे पीड़ा ब्रह्मा की?


तेरे जाने के बाद..


जब तुम घर आते थे शाम को
दिल की धड़कन थम जाती थी
झट दौड़ के मुन्नी कमरे के
किसी कोने में छिप जाती थी
टूटे फूटे अब दरवाज़े
चौखट तो है खिड़कियाँ नहीं
टेढ़े मेढ़े बर्तन हैं बचे
मार नहीं झिड़कियाँ नहीं
आँखों के आगे धरती भी
न जाने कब से घूमी नहीं
न ही दिन को तारे दिखते हैं
अब नींद में डरके उठती नहीं
नन्हीं सी एक आहट पर 
अब दिल जाता है सिमट नहीं
लोगों से नज़र मिलाने में
अब होती कोई झिझक नहीं
अक्कड़ बक्कड़ से खेल हैं अब
न सही जो टूटे खिलौने नहीं
चेहरों पे हमारे शरारत है
उँगलियों के तेरी, निशान नहीं
सामान बिक गया सारा पर
घर भरा-भरा सा लगता है
भर पेट न चाहे खाया हो
मन हरा भरा सा रहता है।


बसंत


स्वर्णिम धूप, हरा मैदान
      पीली सरसों हुई जवान
              चुस्त हुआ, रंगों में नहा
                   लो देखो वयस्क हुआ उद्यान
झील में हैं कुछ श्वेत कमल
        या बादल नभ पर रहे टहल
                     मृदु गान से कोयल के मोहित
                                हैं नाच रहे मोरों के दल
यूँ पवन की छेड़ाछेड़ी से
            उद्विग्न हैं कालियाँ
                      फूलों का पा संरक्षण 
                                निश्चिंत हैं कालियाँ
फूलों से चहुं ओर घिरे
          भौंरे जैसे मद पान किए
                ख़याल तेरा भी भंग पिए
                              आया बसंत को संग लिए

मलबा


लगता है ये रौरव नर्क मुझे
हो रहा है तांडव अग्नि का
यह किसका हाथ
वह किसका पाँव
यह धूलधूसरित सिर
किसका
क्या इस कपाल के पिता हो तुम
बोलो इस धड़ की माँ है कौन
क्यूँ गले लगाते अपने नहीं
क्या सूँघ साँप कर गया मौन
इक जली हुई अँगुली में अँगूठी
किसी को तन्हा छोड़ गई है
किसी के जीवन की धारा का
सदा को रुख़ यह मोड़ गई है
इक युवती का डिज़ाइनर पर्स
निज होगा कभी, अब बिखरा पड़ा है
पाउडर, रूज और लिपस्टिक को
काजल ने अब हथिया लिया है
ख़ासा महँगा किसी का जूता
धुएँ में लिपटा उल्टा पड़ा है
बहुत ही जल्दी में वो होगा
नंगे पाँव जो चला गया है।

कसक


इधर भागी, उधर भागी
उछली कूदी, लपकी, लाँघी
काँपी, तड़पी, उलटी, पलटी
कटी पूँछ मरी औंधी
बेबस और बेकल छिपकली
कर्मों को अपने रोती रही

ज़ख़्म भर गया जल्दी ही
न और उसे कुछ याद रहा
न तो दर्द
न ही कोई सदमा
खालीपन था 

कुछ लमहों का
मन को जब समझा उसने लिया
तो निकल आई इक पूँछ नई
छोटी, मोटी बेहद भद्दी

कर्मों का रोना छोड़
हड़पती है वह अब नित
कीड़े मकौड़े ढेर कि
जाए उसकी कसक मिट


दिव्या माथुर




  • दिव्या माथुर का जन्म दिल्ली में हुआ और वहाँ से एम.ए. (अँग्रेज़ी) करने के पश्चात दिल्ली व ग्लास्गो से पत्रकारिता का डिप्लोमा किया। चिकित्सा-आशुलिपि का स्वतंत्र अध्ययन भी किया। 1985 में आप भारतीय उच्चायोग से जुड़ीं और 1992 से नेहरु केंद्र में वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। उनका लंदन के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अपूर्व योगदान रहा है। रॉयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्‌स की फ़ेलो हैं। नेत्रहीनता से सम्बन्धित कई संस्थाओं में इनका अभूतपूर्व योगदान रहा है। इसी विषय पर इनकी कहानियाँ और कविताएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकीं हैं। आशा फ़ाउँडेशन और ‘पेन’ संस्थाओं की संस्थापक-सदस्य, चार्नवुड, आर्ट्‌स की सलाहकार, यू. के. हिंदी समिति की उपाध्यक्ष, भारत सरकार के आधीन, लंदन के उच्चायोग की हिंदी कार्यकारिणी समिति की सदस्या, कथा यू. के. की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, दिव्या जी कई पत्र, पत्रिकाओं के सम्पादक मंडल में शामिल हैं। अंत:सलिला, रेत का लिखा, ख्याल तेरा और 11 सितम्बर: सपनों की राख तले (कविता संग्रह)। आक्रोश (कहानी संग्रह-प्रो. स्टुअर्ट मैक्ग्रेगर द्वारा विमोचित एवं पद्मानंद साहित्य सम्मान द्वारा सम्मानित), ओडेस्सी: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ सेटलड एबरॉड (अंग्रेज़ी में संपादन, डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा विमोचित) एवं आशा: स्टोरीज़ बाई इंडियन वुमैन राईटरज़ (अँग्रेज़ी में संपादन, साराह माईल्स द्वारा विमोचित) शीघ्र प्रकाश्य : ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘जीवन हा! मृत्यु‘। उनकी कहानियाँ और कविताएँ भिन्न भाषाओं के संकलनों में शामिल की गई हैं। आक्रोश, ओडेस्सी (सईद जाफरी द्वारा विमोचित) एवं आशा- तीनों संग्रहों के पेपरबैक संस्करण आ चुके हैं। जहाँ पॉल रौबसन द्वारा प्रस्तुत दिव्या माथुर के नाटक 'टेट-ए-टेट' की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई, वहीं उनकी दो अन्य कहानियों - ‘एक शाम भर बातें’ एवं ‘अपूर्व दिशा’ का भी सफल मंचन हो चुका है। रेडियो एवं दूरदर्शन पर इनके कार्यक्रम के नियमित प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था ने भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया।
  • राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं निमंत्रित, दिव्या जी को Arts Achiever-2003 Award (Arts Council of England), Indivi™als of Inspiration and Dedication ह्मonour (Chinmoy Mission) एवं संस्कृति सेवा सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।
  • लंदन में कहानियों के मंचन की शुरुआत का सेहरा भी आपके सिर जाता है। रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ठ संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपना स्वर भी दिया है।
  • सम्पर्क : DivyaMathur@aol.com


पुस्तक समीक्षा: कविता के गर्भ से-अरुण देव




                                  

                             आज हमारे बीच भर गई हैं खामोशियाँ..


कविता मनुष्यता की मातृभाषा है. कविता में ही वह अपने सुख-दुःख, यातनाएं, अनुभव दर्ज़ करता आया है. सामाजिक जटिलता बढ़ने से कवि-कर्म कठिन हुआ है. इसमें अब श्वेत-श्याम अनुभव नहीं होते. इसमें बहुत कुछ ‘ग्रे’ होता है. जिसे समझना धैर्य के साथ ही संभव है. दीर्घ परंपरा के कारण कविता में कुछ भी कहना भी बड़ी तैयारी की मांग करता है. जिस परंपरा में कालिदास, कबीर, ग़ालिब, प्रसाद और मुक्तिबोध हुए हों, जिसमें केदारनाथ सिंह और विष्णु खरे लिख रहे हों, उसमें कुछ भी अलहदा लिखना और अपनी पहचान सुनिश्चित करना आसान नहीं है. 

युवा कवि कुमार लव का पहला कविता संग्रह – ‘गर्भ में’ मेरे सामने हैं. कविताएँ 6  खंडों में विभक्त हैं. एक ही संग्रह में कविताओं के लिए 6 अलग-अलग खंड ऐसा संकेत करते हैं कि कवि अपने को अनुभवों में इतना विस्तृत पाता है कि उसे किसी एक शीर्षक में नहीं बाधा जा सकता. हालांकि कई बार ऐसे विभाजन एक रेटारिक की तरह लगते हैं और ऊब पैदा करते हैं. हिंदी कविता में प्रयोगशीलता की भी एक परंपरा है ओर प्रयोग के लिए भी परंपरा में दक्ष होना होता है. परंपराभंजक परंपराओं के साधक होते हैं.   

‘विसंवादी’ खंड के अंतर्गत ‘खामोशियाँ’ में कवि की कोशिशें रंग लाती हैं और ऐसा लगता है कि इसमें काव्याभास से आगे बढ़कर कुछ कहा गया है और सलीके से कहा गया है- 

“कभी हमें घेरे खड़ी थीं
आज हमारे बीच भर गई हैं
खामोशियाँ”

शब्दों का शूल बनना, शोर बनना और फिर अर्थहीन हो जाना अर्थगर्भित है. इसी खंड की अगली कविता भी सुखद अहसास है जब कवि सधे शिल्प में आज के क्षण-जीवी दर्शन को व्यक्त करता है-

‘पर,
पूर्णता 
एक क्षण से ज्यादा
कहाँ रहती है ?’ 

जटिल यांत्रिकता ने सहज मानवीयता के लिए जगहें नहीं छोड़ी हैं. एक सच्चा सीधा प्रेम भी अब सीधे ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो सकता. शब्दों को दीमक लग गई है. कवि कहता है –

‘पर अब भी
चाहता हूँ थामना 
तुम्हारा हाथ,
छूना तुम्हारा मन,
कहना फिर से ..’

कविता की विश्वसनीयता के लिए यह जरूरी है कि वह कवि के जीवनानुभवों से निकले और फिर शिल्प में ढल जाए.प्रेम से संबंधित कविताओं में सच्चाई की एक महक है जो बरबस ध्यान खींचती हैं

‘प्रतीक्षा
तुम्हारे कमल से उठती
गंध की’

संवेदनशील मन अपने को ‘अनफिट’ पाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. ‘एलिनियेशन’ इस सभ्यता की सबसे बड़ी बीमारी है. उत्पाद से उत्पादक का अपरिचय बढ़ते-बढ़ते हमारे संबंधों में घुस जाता है. और कई बार तो हम खुद से अपरिचित हो जाते हैं. प्रचार माध्यमों का दबाव एक नितांत ही बनावटी जीवनशैली के लिए बाध्य करता है. इसका बोझ सहन करते-करते आत्मा बीमार पड़ जाती है. कवि ईश्वर से कहता है-

‘ईश्वर,
गलती हो गई आपसे
दुनिया बनाई मेरे लिए
पर गलत नाप की’

कुछ कविताओं में बिंबों का प्रयोग सुंदर है और प्रभावशाली भी. ‘हे राम’ शीर्षक कविता में कवि कहता है-

‘शायद भूल गए हैं वे पिछले संग्राम
जिनमें खून बरसा था
गहरी नींद में सोए शहरों पर’ 

कुछ आकार में छोटी कविताएँ सुघड़ हैं और मन में बसी रह जाती हैं- 

‘कुछ भीगे ख्वाब थे
बिछाए थे सुखाने के लिए
कमरे भर में सीलन भर गई.’ 

डॉ देवराज के शब्दों में कहा जाए तो कविता में प्रयोगों की लाक्षणिकता के गहरे अर्थ हैं. कविताओं के चयन में और सावधानी की दरकार थी.

  • समीक्षित कृति : ‘गर्भ में’ / कुमार लव/ 2015/
  • तक्षशिला प्रकाशन, 98-ए, हिंदी पार्क, 
  • दरियागंज, नई दिल्ली - 110002/ 
  • पृष्ठ – 136/ मूल्य – रु. 300/-