सोमवार, 7 सितंबर 2015

राधेश्याम बन्धु के गीत




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



    कोलाहल हो या सन्नाटा



     कोलाहल हो
     या सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है,
     जब भी आंसू
     हुआ पराजित, कविता सदा जंग लड़ती है ।

     जब भी कर्ता हुआ अकर्ता
     कविता ने जीना सिखलाया,
     यात्रायें जब मौन हो  गयीं
     कविता ने चलना सिखलाया ।

     जब भी तम का
     जुल्म बढ़ा है,कविता नया सूर्य गढ़ती है ।

     गीतों  की जब पफसलें लुटतीं,
     शीलहरण होता कलियों का,
     शब्दहीन जब हुर्इ चेतना -
     तब-तब चैन लुटा गलियों का ।

     जब कुर्सी का
     कन्श गरजता,कविता स्वयं कृष्ण बनती है ।

     अपने भी हो गये पराये,
     यूं झूठे अनुबन्ध हो गये,
     घर में ही वनवास हो रहा,
     यूं गूंगे सम्बन्ध हो गये ।

     जब रिश्तों
     पतझड़ हंसता, कविता मेघदूत रचती है,
     कोलाहल हो या
     सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है ।
                   

     

   बैठकर नेपथ्य में



     बैठकर
     नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
         जो नहीं
         हमदर्द हैं वे शब्द क्यों गढ़ते ?

     कभी पर्दे को उठा
     आकाश आने दो ।
     मौलश्री की गंध को
     भी गुनगुनाने दो ।

         कभी पंछी की
         चहक से, क्यों नहीं मिलते ?

     क्यों नयन की झील में है
     एक सन्नाटा ?
     हर कुहासे को सुबह की
     हंसी ने छांटा।

         क्यों सुनहले
         दिवस की मुस्कान से डरते ?

     प्यार के किरदार को
     मिलती सभी खुशियां,
     सृजन के ही मंच पर,
     मिलती सुखद छवियां ।

         क्यों न बादल
         बन किसी की तपन को हरते ?

     जो कला से दूर हैं
     वह जिन्दगी से दूर,
     पंखुड़ी के पास जो  हैं
     गंध से भरपूर।

         क्यों न अर्पण
         गंध बन हर हृदय में बसते ?
         बैठकर
         नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
             


    अभी परिन्दों में  धड़कन है



     अभी परिन्दों में
     धड़कन है, पेड़ हरे हैं जिन्दा धरती,

     मत उदास हो
     छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?

     चांद भले ही बहुत दूर हो
     पथ में नित चांदनी बिछाता,
     हर  गतिमान चरण की खातिर
     बादल खुद छाया बन जाता ।

     चाहे थके
     पर्वतारोही, दिन की धूप नहीं है ती ।

     फिर-फिर समय का पीपल कहता
     बढ़ो हवा की लेकर हिम्मत,
     बरगद का आशीष सिखाता
     खोना नहीं प्यार की दौलत ।

     पथ में रात
     भले घिर आये, दिन की यात्रा कभी न रुकती ।

     कितने ही पंछी बेघर हैं
     नीड़ों में बच्चे बेहाल,
     तम से लड़ने कौन चलेगा
     रोज दिये का यही सवाल?

     पग-पग है
     आंधी की साजि़श,पर मशाल की जंग न थमती,
     मत उदास हो
     छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?
               


    शब्दों के कंधों पर



     शब्दों के
     कंधों पर, बर्फ का जमाव,
     कैसे चल
     पायेगी, कागज की नाव ?

     केसर की क्यारी में
     बारूदी शोर,
     काना फूसी करते,
     बादल मुंहजोर ।
     कुहरे की
     साजि़श से उजड़ रहे गांव ।

     मौसम है आवारा
     हवा भी खिलाफ,
     किरने भी सोयी हैं
     ओढ़कर लिहाफ ।
     सठियाये
     सूरज के ठंढे प्रस्ताव ।

     बस्ती को धमकाती
     आतंकी धूप,
     यौवन को बहकाता
     सिक्कों का रूप ।
     ठिठुरी
     चौपालों में उंफघते अलाव ।

     झुग्गी के हिस्से की
     धूप का सवाल,
     कौन हल करेगा बन
     सत्य की मशाल ?
     संशय के
     शिविरों में, धुन्ध का पड़ाव,
     कैसे चल पायेगी, कागज की नाव ?


               

     मोरपंख सपनों का आहत



     जब-जब क्रौच
     हुआ है घायल, गीत बहुत रोया,

     हर बहेलिए
     की साजि़श में, नीड़ों ने खोया ।

          जब महन्त आकाश ही करे
          बारूदी बौछार,
          पंछी कहां उड़ें फिर जाकर
          अपने पंख पसार ?
          हरियाली लुट गयी प्यार की
          टहनी सूख गयी,
          गूंगी हुर्इ  गांव की कोयल
          खुशियां रूठ गयीं।

     मोरपंख सपनों का
     आहत, डर किसने बोया ?

          चौपालों की चर्चा  में
          नपफरत की जंग छिड़ी
          खेतों में हथियार  उग रहे
          लुटती फसल खड़ी ।
          दाना कौन चुगायेगा
          गौरैया सोच रही ?
          बस कौवे का शोर, कबूतर

          कब से उड़ा नहीं ।


     भूला राम-राम
     भी सुगना, लगता है सोया ।

          पग-पग जहां शिकारी घायल
          किससे बात करे ?
          महानगर में हमदर्दी  का
          मरहम कौन धरे ?
          बाजों की बस्ती में सच की
          मैना हार गयी,
          अब बेकार हुयी ।

     शुतुरमुर्ग ने शीश झुकाकर, जुल्मों को ढोया,
     जब-जब क्रौच हुआ है घायल, गीत बहुत रोया ।

       


राधेश्याम बंधु


  • जन्म:10 जुलाई 1940 को पडरौना उत्तर प्रदेश (भारत) में
  • लेखन:नवगीत, कविता, कहानी, उपन्यास, पटकथा, समीक्षा, निबंध
  • प्रकाशित कृतियाँ-
  • काव्य संग्रह:बरसो रे घन, प्यास के हिरन
  • खंडकाव्य: एक और तथागत
  • कथा संग्रह : शीतघर
  • संपादित:जनपथ, नवगीत, कानपुर की काव्ययात्रा, समकालीन कविता, समकालीन कहानियाँ, नवगीत और उसका युगबोध। इसके साथ ही आपकी रचनाएँ भारत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रकाशित प्रसारित हो चुकी हैं। वे 'समग्र चेतना' नामक पत्रिका के संपादक भी है।
  • पुरस्कार: भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 'एक और तथागत' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 'जयशंकर प्रसाद पुरस्कार' तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित।
  • टेली फ़िल्में: बन्धुजी अपनी कथा/पटकथा पर आधारित 3 टेली-फ़िल्में- 'रिश्ते', 'संकल्प' और 'कश्मीर एक शबक' तथा 'कश्मीर की बेटी' धारावाहिक बना चुके हैं।
  • सम्प्रति: सहायक महाप्रबन्धक दूरसंचार किदवई भवन नई दिल्ली के पद से 2000 में सेवानिवृत्त।
  • सम्पर्क: बी-3/163, यमुना विहार, दिल्ली-110053

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