विनोद शाही की कलाकृति |
उसे आना ही है...
खोल दो
बंद दरवाजे/ खिड़कियां
मुग्ध न हो/ न हो प्रफुल्लित
जादू जगाते
दीपक के आलोक से।
निकलो
देहरी के उस पार
वंदन-अभिनंदन में
श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
नवजात सूर्य के।
वो देखो-
चहचहाने लगे पंछी
सतरंगी हो उठीं दिशाएं
हां, सचमुच
कालिमा के बाद
आना ही है/ उसे
रश्मियां बिखेरकर
आल्हादित करने
विश्व क्षितिज को..!
जब, एक दिन
वहां, जहां खड़ा है
वह वृक्षमानव
आसपास बसती है
एक समूची दुनिया।
वृक्षमानव
बखूबी जानता है कि
जी भी नहीं पाया होगा
अपनी पूरी उम्र,
बांट न पाया होगा
सबको
ठंडी छांव,
सुन नहीं पाया होगा
जीभरकर किलकारियां
इधर-उधर
नटखट बंदरों से झूलते
बच्चों की,
तभी-
उसके ही जिस्म के
एक हिस्से में जड़ी
कुल्हाड़ी थामे
कई जोड़ा हाथ
क्षण भर में मिटा देंगे
उसका अस्तित्व।
फिर कोई कारीगर
उसके शरीर को
कई हिस्सों में बांटकर
बनाएगा
आधुनिक शैली में
फर्नीचर के उत्कृष्ट नमूने-
जिन पे बैठकर बनेंगी
पर्यावरण रक्षा की
अनेक योजनाएं।
फिर भी वह
विस्मृत नहीं कर पाता
आदमियत के साथ अपना रिश्ता
क्योंकि-
वह यह भी जानता है कि
आधुनिकता की दौड़ में
बदहवास सा भागता आदमी
जब हर कहीं मिटा चुका होगा
हरियाली का अस्तित्व
किसा रोज/शाम को
कंकरीट के जंगल से उकताकर
वापस लौटने पर
उसका बच्चा
रोपता मिलेगा/एक नन्हा पौधा
तब उसे, अचानक याद आयेगा
बचपन में-
खुद का पेड़ों पर झूलना
और वह
सहमे से बच्चे को
पुचकार कर उठा लेगा गोद में।
वर्षा: एक शब्दचित्र
गली के नुक्कड़ पे
बारिश की रिमझिम के बाद
उस छोर से आती
छोटी सी नदी में
छपाक-छपाक करते
अधनंगे बच्चे,
डगमगाकर आतीं
कागज़ की छोटी-छोटी कश्तियां
पल भर को ताजा कर गईं
स्मृतियां-
घर/बचपन की।
घर और बचपन
दोनों ही पर्यायवाची शब्द हैं
अस्थायित्व के
बचपन-
हमेशा पास नहीं रहता
सरक जाता है घुटनों के बल
जाने कब?
और घर भी
हमेशा 'घर' होने का एहसास
नहीं दिलाता
हर किसी को।
आज भी
आज फिर
मचल गया
देहरी पे पांव रखता
नन्हा बच्चा।
एक पल ठिठक कर
कल मिली
पिता की डांट याद करता है
फिर, हौले से पुचकार कर
ज़मीन पे रेंगते
जहरीले कीड़े को-
सूखे पेड़ के सुपुर्द करते हुए
क्लास में
टीचर के पढ़ाए सबक को
कार्यरूप देता है।
बच्चा/कीड़ा/पेड़
तीनों-
एक दूसरे के कोई नहीं
शायद इसीलिए
अब भी सांस ले रही है
मानवता..!
उम्मीद का दायरा
जहां खत्म होता है
उम्मीद का दायरा
वहीं से करो/ तुम
इक नई शुरुआत।
याद रखना-
हर शुरुआत
लबरेज़ होती है
ताज़ातरीन उम्मीदों से
जिसमें/ नाउम्मीदी की
कोई गुंजाईश नहीं होती
और
उम्मीद पे
दुनिया कायम है..!
(रचनाएं काव्य संग्रह 'सरहदें' से)
सुबोध श्रीवास्तव
'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर (उप्र)-208001.
मो.09305540745
ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in
सुबोध श्रीवास्तव
- जन्म: 4 सितम्बर, 1966 (कानपुर)
- मां: श्रीमती कमला श्रीवास्तव
- पिता: स्व.श्री प्रेम नारायण दीवान
- शिक्षा: परास्नातक
- व्यवसाय: पत्रकारिता (वर्ष 1986 से)। 'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत' (कानपुर/लखनऊ) आदि में विभिन्न पदों पर कार्य।
- विधाएं: नई कविता, गीत, गजल, दोहे, मुक्तक, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य। रचनाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं,प्रमुख अंतरजाल पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/आकाशवाणी से प्रसारण भी।
- प्रकाशित कृतियां:
- 'पीढ़ी का दर्द' (काव्य संग्रह)
- 'ईष्र्या' (लघुकथा संग्रह)
- 'शेरनी मां' (बाल कथा संग्रह)
- 'सरहदें' (काव्य संग्रह)
- विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
- साहित्य/पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'।
- कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
- संपादन: 'काव्ययुग' ई-पत्रिका
- संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
- संपर्क: 'माडर्न विला',10/518, खलासी लाइन्स, कानपुर (उ.प्र.)-208001, उत्तर प्रदेश (भारत)।
- मोबाइल: 09305540745/9839364419
- फेसबुक:www.facebook.com/subodhsrivastava85
- ट्विटर:www.twitter.com/subodhsrivasta3
- ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in
- पुस्तक-सरहदें/ कविता संग्रह
- कवि-सुबोध श्रीवास्तव
- पृष्ठ-96
- मूल्य-120 रुपये
- बाईंडिंग-पेपरबैक
- प्रकाशक-अंजुमन प्रकाशन,
- 942 मुट्ठीगंज, इलाहाबाद,
- उत्तर प्रदेश (भारत)
- मोबाइल: +91-9453004398
- ISBN12: 9789383969722
- ISBN10: 9383969722
- http://www.anjumanpublication.com
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