सोमवार, 28 सितंबर 2015

डॉ.अनिता कपूर की कविताएं


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

तुम्हें छू लेती हूँ


तुम्हें छू लेती हूँ
खाली कागज़ पर शब्दों से
पेंटिंग में भर के रंग
ठहरे पानी में फैक के कंकड़
बरसती बूंदों को तन पर छुआ कर
पेड़ से टपके पत्ते की शरारत से
तुम मेरे पास नहीं
फिर भी तुम्हें छू लेती हूँ
अहसासों के कुंड में नहा कर
छूने के लिए पास होना जरूरी तो नहीं


मन की सड़क


मत दिखाओ मेरे पावोँ को
अपने मन की सड़क
फिर क्या पता वो रास्ता
मुझे रास आ जाए।
महरों-माह की चमक रहेगी
ताउम्र हमारे रिश्तों पर
ख़्यालों का यूं फिसलना
रातों को रास आ जाये।
थकने लगे हैं अब तो
तेरी-मेरी परछाइयों के भी पाँव
ए जिंदगी तेरा धीरे चलना
थकान को रास आ जाए।
जिंदगी जो बन गयी थी
तेज़ाब की उफनती नदी
क्या पता किसी रिश्ते को
फिर तैरना रास आ जाये।
वफ़ा की बात करते हो
तमाम रास्ते तिरगी करके
इतिहास जीने के लिए, फिर
अनारकली होना रास आ जाए।


अलाव


तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से
समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए ?


फागुनी मन


सपनों में भर के रंग
अक्सर भूल जाया करते हैं
कि पेड़ों के सायों को भी
धूप सताती है



सपनों की रंगीन स्याही से


हाथ की टूटी लकीरों पर
कुछ इबारत जब जब लिखी है
रात आ कर
हथेली को रगड़ गई हैं
स्याही चूस


वक्त की खूंटी पर


मेरी जिंदगी को
टांग कर अक्सर
मेरे ही दर्द
नहाने चल देते हैं
नदी में
उजले हो कर लौटते हैं
और
गुनगुनाते हुए
मेरी पीढ़ा के दंश को
नाग बन चूस लेते हैं
सहमे से मेरे प्राण
सुख के खरगोश
ढूंढने लगते हैं।


बोंजाई


हर रोज़ यह चाँद
रात की चोकीदारी में
सितारों की फ़सल बोता है
पर चाँद को सिर्फ बोंजाई पसंद है
तभी तो वो सितारों को
कभी बड़ाही नहीं होने देता है ।


आँखों की सड़क


मेरी आँखों की सड़क पर
जब तुम चलकर आते थे
कोलतार मखमली गलीचा बन जाता था
मेरी आँखों की सड़क से जब
तुम्हें वापस जाते देखती थी
वही सड़क रेगिस्तान बन जाती थी

तुम फिर जब-जब वापस नहीं आते थे 
रेगिस्तान की रेत 
आँख की किरकिरी बन जाती थी
आँखों ने सपनों से रिश्ता तोड़ लिया था
फिर मुझे नींद नहीं आती थी




उसके जाने के बाद


उसके जाने के बाद मैं
ताकती रही उसके क़दमों के निशाँ
मैंने कहा था उसे
हो सके तो उन्हें भी साथ ले जाना
अब कितना मुश्किल है उसका जाना…
जिंदगी के जाने के बाद मै
छूती रही उसकी परछाई के निशां
मैने कहा था उसे
हो सके तो साँसे भी साथ ले जाना
अब कितना मुश्किल है जीना ….
यादों के जल जाने के बाद मै
बिनती रही उसकी राख़ के निशाँ
मैने कहा था उसे
हो सके तो राख़ उढ़ा ले जाना
अब कितना मुश्किल हैं
ढेर में जीना….



डॉ अनिता कपूर 


  • शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, अँग्रेजी एवं संगीत (सितार), पी.एचडी (अँग्रेजी),पत्रकारिता में डिप्लोमा 
  • कार्यरत : अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्र “यादें” की प्रमुख,संपादक, “ग्लोबल वुमेन पावर” संस्था संस्था की को-फ़ाऊनडर
  • प्रकाशित कृतियाँ: बिखरे मोती, अछूते स्वर, ओस में भीगते सपने,कादंबरी, साँसों के हस्ताक्षर (कविता-संग्रह), दर्पण के सवाल (हाइकु-संग्रह), अनेकों भारतीय एवं अमरीका की पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, कॉलम, साक्षात्कार एवं लेख प्रकाशित, प्रवासी भारतीयों के दुःख-दर्द और अहसासों पर एक पुस्तक शीघ्र प्रकाशीय.                
  • पुरस्कार/सम्मान:(2015) अमेरिका में कम्यूनिटी सम्मान,GOPIO द्वारा तथा मिलपिटस शहर के मेयर द्वारा सम्मानित, (2014) पंचवटी राष्ट्रभाषा सम्मान, समाज कल्याण बोर्ड द्वारा सम्मानित, अमेरिका के टीवी और गोपियो संस्था द्वारा कम्यूनिटी सम्मान-(2013) GOPIA (Global organization of People of Indian Origin), अमेरिका, द्वारा हिन्दी में योगदान के लिए सम्मान, -जोधपुर में “कथा-साहित्य एवं संस्कृति संस्थान” द्वारा  “सूर्य नगर शिखर सम्मान” (वर्ष 2012) ,-“कायाकल्प साहित्य-कला फ़ाउंडेशन” सम्मान (वर्ष 2012),-“कवयित्री सम्मेलन” आगरा द्वारा विशिष्ट सम्मान (वर्ष 2012) ,-महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी और कथा यू.के द्वारा प्रवासी हिन्दी सेवी सम्मान (2012),-10 वां अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव, नयी दिल्ली, प्रदत् “अक्षरम प्रवासी साहित्य सम्मान”,  (2012) ,प्रवासी हिन्दी सेवी सम्मान-2012,प्रवासी कवियत्री  सम्मान-2012,कायाकल्प साहित्य कला फ़ाउंडेशन-12 पॉलीवूड स्टार मीडिया अवार्ड-2011, सामाजिक सेवा अमरीका अवार्ड-2009  
  • संपर्क: Fremont, CA 94587, USA 
  • फोन: 510-894-9570
  • ईमेल: anitakapoor.us@gmail.com 

सोमवार, 21 सितंबर 2015

अंसार क़म्बरी की ग़ज़लें



चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



ज़िन्दा रहे तो हमको..


ज़िन्दा रहे तो हमको क़लन्दर कहा गया.
सूली पे चढ़ गये तो पयम्बर कहा गया 

ऐसा हमारे दौर में अक्सर कहा गया.
पत्थर को मोम, मोम को पत्थर कहा गया 

खुद अपनी पीठ ठोंक ली कुछ मिल गया अगर
जब कुछ नहीं मिला तो मुक़द्दर कहा गया 

वैसे तो ये भी आम मकानों की तरह था.
तुम साथ हो लिये तो इसे घर कहा गया 

जिस रोज़ तेरी आँख ज़रा डबडबा गयी.
क़तरे को उसी दिन से समन्दर कहा गया 

जो रात छोड़ दिन में भी करता है रहज़नी.
ऐसे सफेद पोश को रहबर कहा गया 



तेरा आँचल जो..


तेरा आँचल जो ढल गया होता,
रुख़ हवा का बदल गया होता 

देख लेता जो तेरी एक झलक,
चाँद का दम निकल गया होता 

छू न पायी तेरा बदन वरना,
धूप का हाथ जल गया होता 

झील पर ख़ुद ही आ गए वरना,
तुझको लेने कमल गया होता 

मैं जो पीता शराब आँखों से,
गिरते-गिरते सँभल गया होता 

माँगते क्यूँ वो आईना मुझसे,
मैं जो लेकर ग़ज़ल गया होता 



हम कहाँ आ गये..


हम कहाँ आ गये आशियाँ छोड़कर,
खिलखिलाती हुई बस्तियां छोड़कर 

उम्र की एक मंजिल में हम रुक गये,
बचपना बढ़ गया उँगलियाँ छोड़कर 

नाख़ुदा ख़ुद ही आपस में लड़ने लगे,
लोग जायें कहाँ कश्तियाँ छोड़कर 

आज अख़बार में फिर पढ़ोगे वही,
कल जो सूरज गया सुर्ख़ियाँ छोड़कर 

लाख रोका गया पर चला ही गया,
वक़्त यादों की परछाईयाँ छोड़कर 



बह रही है जहाँ पर नदी..


बह रही है जहाँ पर नदी आजकल,
जाने क्यूँ है वहीं तश्नगी आजकल 

अपने काँधे पे अपनी सलीबे लिये,
फिर रहा है हर एक आदमी आजकल 

बोझ काँधों पे है, ख़ार राहों में हैं,
आदमी की ये है ज़िन्दगी आजकल 

पाँव दिन में जलें, रात में दिल जले,
घूप से तेज़ है  चाँदनी आजकल 

एक तुम ही नहीं हो मेरे पास बस,
और कोई नहीं है कमी आजकल 

अपना चेहरा दिखाये किसे ‘क़म्बरी’,
आईना भी लगे अजनबी आजकल 



कोई खिलता गुलाब क्या जाने..


कोई खिलता गुलाब क्या जाने,
आ गया कब शबाब क्या जाने 

गर्मिये-हुस्न की लताफ़त को,
तेरे रुख़ का नक़ाब क्या जाने 

इस क़दर मैं नशे में डूबा हूँ,
जामो-मीना शराब क्या जाने1

लोग जीते हैं कैसे बस्ती में,
इस शहर का  नवाब क्या जाने 

ए.सी. कमरों में बैठने वाले,
गर्मिए-आफ़ताब क्या जाने 

नींद में ख़्वाब देखने वाले,
जागी आँखों के ख़्वाब क्या जाने 

जिसको अल्लाह पर यकीन नहीं,
वो सवाबो-अज़ाब क्या जाने 


अंसार क़म्बरी


 ‘ज़फ़र मंजिल’ 11/116, 
ग्वालटोली, कानपुर–208001
मो-9450938629/ 9305757691


अंसार क़म्बरी



  • जन्म : 3–11–1950
  • पिता का नाम : स्व.ज़व्वार हुसैन रिज़वी
  • लेखन : ग़ज़ल, गीत, दोहा, मुक्तक, नौहा, सलाम, यदा-कदा आलेख एवं पुस्तक समीक्षा आदि
  • प्रकाशित कृति : ‘अंतस का संगीत’ (दोहा व गीत काव्य संग्रह) 
  • सम्मान : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ व्दारा 1996 के सौहार्द पुरस्कार एवं समय-समय पर नगर व देश की अनेकानेक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं व्दारा पुरस्कृत व सम्मानित
  • सम्पर्क : ‘ज़फ़र मंजिल’ 11/116, ग्वालटोली, कानपुर–208001
  • मो - 9450938629/ 9305757691
  • ई-मेल : ansarqumbari@gmail.com

सोमवार, 14 सितंबर 2015

सुबोध श्रीवास्तव के दोहे


विनोद शाही की कलाकृति 


हिन्दी का संसार



भाषाओं में श्रेष्ठ है, प्रचुर ज्ञान भंडार।
सरस, सहज, मोहक लगे, हिन्दी का संसार॥

हिन्दी तो है हिन्द के, गौरव की पहचान।
हिन्दी को हम स्नेह दें, ना मिटने दें शान॥

सुनने में मीठी लगे,बोलन में आसान।
जन को जन से जोड़ती, हिन्दी मातृ समान॥

चंद दिनों तक ही रही, खिलती हुई उजास।
शेष वर्ष हिन्दी रही, बैठी अलग उदास॥

सरकारें तो देश की, करती रहीं बखान।
हिन्दी बैठी ही रही, पाने को सम्मान॥

अंग्रेजी खिलती गयी, हिन्दी रही उदास।
संविधान ने दे दिया, हिन्दी को वनवास॥

दुनिया में है जिस तरह, भारत देश महान।
वैसे ही है हिन्द की, हिंदी भाषा शान।।

भाषाएँ तो बाँटतीं, समरसता औ' प्यार।
भाषाओं के नाम पर, झगड़े हैं बेकार।।

हिंदी से रोजी मिली, हिंदी से ही शान।
पर बाबूजी कर रहे, अंग्रेजी का गान।।

बातें ही बातें रहीं, सरकारों के पास।
हिंदी बरसों से यही, झेल रही संत्रास।।

हिंदी की इस देश में, हालत बड़ी विचित्र।
संतानें हैं हिन्द की, अंग्रेजी की मित्र।।

जिसका घर में ही हुआ, पग-पग पर अपमान।
उस हिंदी का हो रहा, दुनिया में सम्मान।।

मन में हम यदि ठान लें, करना है उत्थान।
हर दिन बढ़ता जाएगा, हिंदी का सम्मान।।

पखवारे मनते रहे, हुआ नहीं कल्यान।
बहुत हुआ अब दीजिए, हिन्दी को सम्मान॥


सुबोध श्रीवास्तव


'माडर्न विला', 10/518,
खलासी लाइन्स,कानपुर (उप्र)-208001.
मो.09305540745
ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in



सुबोध श्रीवास्तव


  • जन्म: 4 सितम्बर, 1966 (कानपुर)
  • मां: श्रीमती कमला श्रीवास्तव
  • पिता: स्व.श्री प्रेम नारायण दीवान
  • शिक्षा: परास्नातक
  • व्यवसाय: पत्रकारिता (वर्ष 1986 से)। 'दैनिक भास्कर', 'स्वतंत्र भारत' (कानपुर/लखनऊ) आदि में विभिन्न पदों पर कार्य।
  • विधाएं: नई कविता, गीत, गजल, दोहे, मुक्तक, कहानी, व्यंग्य, निबंध, रिपोर्ताज और बाल साहित्य। रचनाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं,प्रमुख अंतरजाल पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/आकाशवाणी से प्रसारण भी।
  • प्रकाशित कृतियां:
  • 'सरहदें ' (काव्य संग्रह)
  • 'पीढ़ी का दर्द' (काव्य संग्रह)
  • 'ईष्र्या' (लघुकथा संग्रह)
  • 'शेरनी मां' (बाल कथा संग्रह)
  • विशेष: काव्यकृति 'पीढ़ी का दर्द' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।
  • साहित्य/ पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा 'गणेश शंकर विद्यार्थी अतिविशिष्ट सम्मान'।
  • कई अन्य संस्थाओं से भी सम्मानित।
  • संपादन: 'सुबोध सृजन' ई-पत्रिका
  • संप्रति: 'आज' (हिन्दी दैनिक), कानपुर में कार्यरत।
  • संपर्क: 'माडर्न विला',10/518, खलासी लाइन्स, कानपुर (उ.प्र.)-208001, उत्तर प्रदेश (भारत)।
  • फोन: 09305540745/ 9839364419
  • फेसबुक:www.facebook.com/subodhsrivastava85
  • ट्विटर:www.twitter.com/subodhsrivasta3
  • ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in

सोमवार, 7 सितंबर 2015

राधेश्याम बन्धु के गीत




चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



    कोलाहल हो या सन्नाटा



     कोलाहल हो
     या सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है,
     जब भी आंसू
     हुआ पराजित, कविता सदा जंग लड़ती है ।

     जब भी कर्ता हुआ अकर्ता
     कविता ने जीना सिखलाया,
     यात्रायें जब मौन हो  गयीं
     कविता ने चलना सिखलाया ।

     जब भी तम का
     जुल्म बढ़ा है,कविता नया सूर्य गढ़ती है ।

     गीतों  की जब पफसलें लुटतीं,
     शीलहरण होता कलियों का,
     शब्दहीन जब हुर्इ चेतना -
     तब-तब चैन लुटा गलियों का ।

     जब कुर्सी का
     कन्श गरजता,कविता स्वयं कृष्ण बनती है ।

     अपने भी हो गये पराये,
     यूं झूठे अनुबन्ध हो गये,
     घर में ही वनवास हो रहा,
     यूं गूंगे सम्बन्ध हो गये ।

     जब रिश्तों
     पतझड़ हंसता, कविता मेघदूत रचती है,
     कोलाहल हो या
     सन्नाटा, कविता सदा सृजन करती है ।
                   

     

   बैठकर नेपथ्य में



     बैठकर
     नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
         जो नहीं
         हमदर्द हैं वे शब्द क्यों गढ़ते ?

     कभी पर्दे को उठा
     आकाश आने दो ।
     मौलश्री की गंध को
     भी गुनगुनाने दो ।

         कभी पंछी की
         चहक से, क्यों नहीं मिलते ?

     क्यों नयन की झील में है
     एक सन्नाटा ?
     हर कुहासे को सुबह की
     हंसी ने छांटा।

         क्यों सुनहले
         दिवस की मुस्कान से डरते ?

     प्यार के किरदार को
     मिलती सभी खुशियां,
     सृजन के ही मंच पर,
     मिलती सुखद छवियां ।

         क्यों न बादल
         बन किसी की तपन को हरते ?

     जो कला से दूर हैं
     वह जिन्दगी से दूर,
     पंखुड़ी के पास जो  हैं
     गंध से भरपूर।

         क्यों न अर्पण
         गंध बन हर हृदय में बसते ?
         बैठकर
         नेपथ्य में क्यों स्वयं से लड़ते ?
             


    अभी परिन्दों में  धड़कन है



     अभी परिन्दों में
     धड़कन है, पेड़ हरे हैं जिन्दा धरती,

     मत उदास हो
     छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?

     चांद भले ही बहुत दूर हो
     पथ में नित चांदनी बिछाता,
     हर  गतिमान चरण की खातिर
     बादल खुद छाया बन जाता ।

     चाहे थके
     पर्वतारोही, दिन की धूप नहीं है ती ।

     फिर-फिर समय का पीपल कहता
     बढ़ो हवा की लेकर हिम्मत,
     बरगद का आशीष सिखाता
     खोना नहीं प्यार की दौलत ।

     पथ में रात
     भले घिर आये, दिन की यात्रा कभी न रुकती ।

     कितने ही पंछी बेघर हैं
     नीड़ों में बच्चे बेहाल,
     तम से लड़ने कौन चलेगा
     रोज दिये का यही सवाल?

     पग-पग है
     आंधी की साजि़श,पर मशाल की जंग न थमती,
     मत उदास हो
     छाले लखकर, ओ राही नदिया कब थकती ?
               


    शब्दों के कंधों पर



     शब्दों के
     कंधों पर, बर्फ का जमाव,
     कैसे चल
     पायेगी, कागज की नाव ?

     केसर की क्यारी में
     बारूदी शोर,
     काना फूसी करते,
     बादल मुंहजोर ।
     कुहरे की
     साजि़श से उजड़ रहे गांव ।

     मौसम है आवारा
     हवा भी खिलाफ,
     किरने भी सोयी हैं
     ओढ़कर लिहाफ ।
     सठियाये
     सूरज के ठंढे प्रस्ताव ।

     बस्ती को धमकाती
     आतंकी धूप,
     यौवन को बहकाता
     सिक्कों का रूप ।
     ठिठुरी
     चौपालों में उंफघते अलाव ।

     झुग्गी के हिस्से की
     धूप का सवाल,
     कौन हल करेगा बन
     सत्य की मशाल ?
     संशय के
     शिविरों में, धुन्ध का पड़ाव,
     कैसे चल पायेगी, कागज की नाव ?


               

     मोरपंख सपनों का आहत



     जब-जब क्रौच
     हुआ है घायल, गीत बहुत रोया,

     हर बहेलिए
     की साजि़श में, नीड़ों ने खोया ।

          जब महन्त आकाश ही करे
          बारूदी बौछार,
          पंछी कहां उड़ें फिर जाकर
          अपने पंख पसार ?
          हरियाली लुट गयी प्यार की
          टहनी सूख गयी,
          गूंगी हुर्इ  गांव की कोयल
          खुशियां रूठ गयीं।

     मोरपंख सपनों का
     आहत, डर किसने बोया ?

          चौपालों की चर्चा  में
          नपफरत की जंग छिड़ी
          खेतों में हथियार  उग रहे
          लुटती फसल खड़ी ।
          दाना कौन चुगायेगा
          गौरैया सोच रही ?
          बस कौवे का शोर, कबूतर

          कब से उड़ा नहीं ।


     भूला राम-राम
     भी सुगना, लगता है सोया ।

          पग-पग जहां शिकारी घायल
          किससे बात करे ?
          महानगर में हमदर्दी  का
          मरहम कौन धरे ?
          बाजों की बस्ती में सच की
          मैना हार गयी,
          अब बेकार हुयी ।

     शुतुरमुर्ग ने शीश झुकाकर, जुल्मों को ढोया,
     जब-जब क्रौच हुआ है घायल, गीत बहुत रोया ।

       


राधेश्याम बंधु


  • जन्म:10 जुलाई 1940 को पडरौना उत्तर प्रदेश (भारत) में
  • लेखन:नवगीत, कविता, कहानी, उपन्यास, पटकथा, समीक्षा, निबंध
  • प्रकाशित कृतियाँ-
  • काव्य संग्रह:बरसो रे घन, प्यास के हिरन
  • खंडकाव्य: एक और तथागत
  • कथा संग्रह : शीतघर
  • संपादित:जनपथ, नवगीत, कानपुर की काव्ययात्रा, समकालीन कविता, समकालीन कहानियाँ, नवगीत और उसका युगबोध। इसके साथ ही आपकी रचनाएँ भारत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं तथा आकाशवाणी व दूरदर्शन से प्रकाशित प्रसारित हो चुकी हैं। वे 'समग्र चेतना' नामक पत्रिका के संपादक भी है।
  • पुरस्कार: भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा 'एक और तथागत' के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के 'जयशंकर प्रसाद पुरस्कार' तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित।
  • टेली फ़िल्में: बन्धुजी अपनी कथा/पटकथा पर आधारित 3 टेली-फ़िल्में- 'रिश्ते', 'संकल्प' और 'कश्मीर एक शबक' तथा 'कश्मीर की बेटी' धारावाहिक बना चुके हैं।
  • सम्प्रति: सहायक महाप्रबन्धक दूरसंचार किदवई भवन नई दिल्ली के पद से 2000 में सेवानिवृत्त।
  • सम्पर्क: बी-3/163, यमुना विहार, दिल्ली-110053